"प्यार के अक्षांश को आधार दे दो,
फिर न कहना
स्नेह का विस्तार जिन्दगी के कोण पर संघर्ष करता है
या गुजरते रास्तों से पूछ लेना
हमसफ़र का साथ मैं कैसे निभाऊं ?
और कह दो शाम के थकते से सूरज से
जिन्दगी के रोशनदान से अब यों न झांके
अब क्षितिज का छल मुझे निश्छल बना बैठा
और चन्दा छत की सीढ़ियों से उतर कर रोज आँगन में जो आता है
उसेभी स्नेह के विस्तार की सीमा बताता वीतरागी अब क्षितिज के पार जा पहुंचा."
फिर न कहना
स्नेह का विस्तार जिन्दगी के कोण पर संघर्ष करता है
या गुजरते रास्तों से पूछ लेना
हमसफ़र का साथ मैं कैसे निभाऊं ?
और कह दो शाम के थकते से सूरज से
जिन्दगी के रोशनदान से अब यों न झांके
अब क्षितिज का छल मुझे निश्छल बना बैठा
और चन्दा छत की सीढ़ियों से उतर कर रोज आँगन में जो आता है
उसेभी स्नेह के विस्तार की सीमा बताता वीतरागी अब क्षितिज के पार जा पहुंचा."
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