ना तीर न तलवार से मरती है सच्चाई!
जितना दबाओ उतना उभरती है सच्चाई!
ऊँची उड़ान भर भी ले कुछ देर को फ़रेब!
आख़िर में उसके पंख कतरती है सच्चाई!
बनता है लोह जिस तरह फ़ौलाद उस तरह!
शोलों के बीच में से गुज़रती है सच्चाई!
सर पर उसे बैठाते हैं जन्नत के फ़रिश्ते!
ऊपर से जिसके दिल में उतरती है सच्चाई!
जो धूल में मिल जाय, वज़ाहिर, तो इक रोज़!
बाग़े-बहार बन के सँवरती है सच्चाई!
रावण की बुद्धि, बल से न जो काम हो सके!
वो राम की मुस्कान से करती है सच्चाई!
जितना दबाओ उतना उभरती है सच्चाई!
ऊँची उड़ान भर भी ले कुछ देर को फ़रेब!
आख़िर में उसके पंख कतरती है सच्चाई!
बनता है लोह जिस तरह फ़ौलाद उस तरह!
शोलों के बीच में से गुज़रती है सच्चाई!
सर पर उसे बैठाते हैं जन्नत के फ़रिश्ते!
ऊपर से जिसके दिल में उतरती है सच्चाई!
जो धूल में मिल जाय, वज़ाहिर, तो इक रोज़!
बाग़े-बहार बन के सँवरती है सच्चाई!
रावण की बुद्धि, बल से न जो काम हो सके!
वो राम की मुस्कान से करती है सच्चाई!
नोट:-इस रचना के मूल रचनाकार का नाम कवि श्री उदय
प्रताप जी है ! जैसा कि कुछ वरिष्ठ ब्लोगरों ने भी ज़िक्र
किया है !
प्रताप जी है ! जैसा कि कुछ वरिष्ठ ब्लोगरों ने भी ज़िक्र
किया है !